Friday 26 July 2013


नीन्द 

आज मेरी नीन्द भी मेरे साथ जगी है बिस्तर पर.......  
कूलर की सरसराहट से कानों को ढक के घूर रही है मुझे।।।।।
दिल्ली में हूँ, न कमरे में खिड़की है न उससे झाँकता महताब कि कुछ नज़्म ही कह दूँ उस अकेली एकटक नज़र को….

चादर का एक कोना हमारे बीच लुका-छिप्पी खेल रहा है… 
नीन्द ज़िद कर रही है लोरी सुनाने को, मुझे सपने और देखने हैं जग के…

कहती है चलो यादों के दरख़्ते दरारों से पुराने मुहल्ले घूम आते हैं
मुहल्ले तो यारों से गुलज़ार थे, सब ने नया ठिकाना पाया है अब….

रुआंसा होकर फिर कहती है नीन्द मुझसे 
तो चलो किसी सफ़ेद काग़ज़ पे काली स्याही से लिखी दास्तानों के बीच चलें….
मंटो के कहानियों में सोयी है अभी लाहौर पहुँचकर नीन्द मेरी…

बस ये पन्ना ना ख़ाक कर दे वतनपरस्त कोई...

2 comments:

  1. Very well written Jha ji.
    Aapne hume emotional kar diya

    ReplyDelete
  2. ab kya kahein, such clarity of thought.. hats off (Y)

    ReplyDelete