Wednesday 17 October 2012

दुर्गा पूजा।

पहली बार दुर्गा पूजा में घर से बाहर हूँ, बड़ा अजीब लग रहा है। सुबह सुबह नींद खुलता था धूप और हुमाद के महक से और दिन भर दुर्गा सप्तशती का पाठ चालू रहता था घर में साथ में शंख, घंटी और बगल वाला पंडाल से लखमीर सिंह लक्खा का गाना का आवाज़, पुरा माहौल भक्ति में डूब जाता। पूरा दुर्गा पूजा कम से कम माँ बिना नहाए नहीं खाने देती थी और न घर में प्याज लहसुन बनता था। शाम होते ही दोस्त लोग के साथ राउंड पर निकलना होता था पूरा पंडाल का निरिक्षण करने। सप्तमी से तो बस पूछिये मत, दोस्त लोग का पूरा हुजूम निकलता था साथ में। गर्दनीबाग से शुरू करके 10 नंबर, पंचमंदिर, कालिबारी होते हुए डाकबंगला जहां आज तक 5 मिनट इत्मीनान से माता का मूर्ति नहीं देखे होंगे समझिये राजीव चौक का सब लाइन एक में मिल गया हो, 2 मिनट  में ठेल ठेल के सब ई पार से ऊ पार दे आता था। फिर मौर्या लोक में बैठ कर चाट और प्याज वाला पाँव भाजी और कोल्ड ड्रिंक। फिर एक दिन रुख होता था बोरिंग रोड का, चौराहा से पैदल पैदल ऐ.एन कॉलेज तक।नवमी को सुबह में एन आई टी तरफ और रात में कंकरबाग भ्रमण। रास्ता में रुक के कभी रिंग फ़साना त कभी बन्दुक से बलून फोड़ना चलते चलते पूरा पटना नापा जाता था लेकिन उत्साह एक रत्ती कम नहीं होता था।एक्को पंडाल देखना बाकी रह गया तो समझिये अगला दिन उसी पंडाल का सब जान बुझ के बराई करेगा और बोलेगा की 'मेने पंडालवा तो तुम नहीं घूमा'। एक दिन परिवार के साथ घूमना जरूर होता था और साल भर उस दिन का इन्तज़ार रहता था क्यूंकि मिडिल क्लास में ऐसा दिन पर्व त्यौहार में ही आता है। फिर दशमी के दिन गाँधी मैदान में लंका दहन, बिना हुडदंग के तो हो ही नहीं सकता है।
डाकबंगला चौराहा में माता की प्रतिमा 
जब छोटे थे तब याद है की गांव जाना होता था दुर्गा पूजा में और फिर छठ तक वहीँ रहना होता था। गांव का  भी बहुत अनोखा होता था। ढोल और पिपही का आवाज़ पूरा टोल में गूंजते  रहता था, नानी के साथ दोपहर में देवीस्थान जाना और वहाँ फरही, कचरी खरीद के पेपर पर रख के खाना। अष्टमी को बड़ा पर्दा टांग  के रात भर  फिल्म दिखाया जाता था, यही एक रात होता था जब जाती के नाम पर अलग अलग नहीं बैठाया जाता था जो  पाहिले सिट लूट ले ऊ आगे बैठेगा बहुत फिल्म देखे हैं ऐसे उंघते उंघते लेकिन सोते नहीं थे नहीं तो बेइज्जती हो जाता था जैसे बाराती में कम खाने पर होता है मेरे गाँव में। सुनील दत्त और राजकुमार जी वाला हमराज अभी तक याद है बहुत पसंद आया था और उसका गाना 'नीले गगन के तले.....' दुबारा बजवाया गया था फिल्म को रोक के। रामलीला का भी जबरदस्त क्रेज था देखने जाना ही जाना था चाहे बगल वाला गांव मव ही क्यूँ न लगे। बाद में फिल्म लगना बंद हो गया और आर्केस्ट्रा लगा।अष्टमी और नवमी में से एक दिन बलिप्रदान होता था एक्के तलवार में खस्सी(छोटा बकरी) दू टुकरा, मजाल है कोई उसको गाँव भर में मांस बोल देता भगवती का प्रसाद होता है वो। फिर दशमी को सुबह सुबह उठ के कान पर जयंती रखना है और शाम को  गाँव की दुर्गा जी को एक ही तालाब में भसाया जाता था। मूर्ति भंसने के बाद मेला घूमना होता था और उस दिन तो  खाना ही खाना था। हमको पटना का मेला ज्यादा अच्छा लगता था गांव से, पूरा शहर का गजब माहौल रहता था और घुमने का पूरा आजादी रहता था शायद इसीलिए।ये सब जब लिख रहा हूँ तो सभी चीज़ें आँखों के सामने से दुबारा गुजरी और पता नहीं क्यूँ आँखों को नम कर गयी , घूमते घूमते दोस्त लोग के साथ हंसी मज़ाक नया नया कपड़ा दिखाना वाकई अद्भुत होता है बचपन। सब जगह याद है सब दोस्त याद है, इस बार भी सब आ रहा है हम नहीं जा रहें सच में अजीब लग रहा है। यहाँ कोई चहल पहल नहीं है।
आप सब को दुर्गा पूजा बहुत मुबारक हो।